Tuesday, October 8, 2013

बाजारवाद और पत्रकारिता

शुरूआती दिनों से आजतक और आगे भी पत्रकारिता जन जागरण के लिए एक पवित्र किन्तु जोखिम भरा काम रहा है। इतिहास साक्षी है कि आमलोगों की बेहतरी और उनके बीच चेतना विकसित  करने के लिए समर्पित पत्रकारों ने कितनी कुर्बानियाँ दी है। यहाँ तक कि गलत नीतियों के कारण ताकतवर सत्ताधीशों को गद्दी छोड़ने के लिए मजबूर भी किया। यह उन्हीं समर्पित कलम के सिपाहियों की सजगता और पत्रकारिता के प्रति निष्ठा का ही परिणाम था जो राज्य सहित केन्द्रीय स्तर पर सत्ता परिवर्तित हुई।  यही स्थिति आज भी है लेकिन सिर्फ उन लोगों के लिए जिन्होंने पत्रकारिता को एक पवित्र मिशन माना है और लोक कल्याण का हथियार भी। यही कारण है कि पत्रकारिता को लोकतंत्र का सजग प्रहरी और चौथा-खम्भा भी कहा जाता हे।

लेकिन आज स्थिति बिल्कुल बदली बदली सी है। तथाकथित "विश्व-ग्राम" की परिकल्पना को स्थापित करने की दिशा में कार्यरत पूँजीवादी शक्तियों ने इस पूरी दुनिया को ही एक बाजार में तब्दील कर दिया। आज भौतिक वस्तुओं के अतिरिक्त सामाजिक सम्बन्ध, साहचर्य, आपसी प्रेम, रिश्ते-नाते सब जगह किसी ना किसी रूप में बाजार पहुँच चुका है। यहाँ तक कि मानव जीवन की सबसे महत्वपूर्ण इकाई परिवार भी टूटन के कगार पर है। फिर यह पत्रकारिता कैसे बची रह सकती है? जन-जागरण का यह मिशन भी आज बाजारवाद की जद में बुरी तरह से जकड़ गया है और पीत-पत्रकारिता करके धन कमाने का जरिया भी।

याद आती है ग्लोबलाइजेशन के पूर्व के दिनों की जब मात्र चार पन्ने के अखबार हुआ करते थे जिसके एक एक हर्फ के पढ़े बिना चैन नहीं मिलता था। लेकिन आज सोलह, अठारह, कभी कभी बीस-बाईस पृष्ठों के अखबार में पठनीय सामग्री कितनी हैं? जनहित की बातें कितनी हैं? यह सवाल सिर्फ मेरा नहीं बल्कि वैसे आमलोगों का भी है जिनकी आवाज कोई नहीं सुनता। आज बाजारवाद के निरन्तर विस्तार के कारण सरकार और अखबार स्थिति यह हो गयी है कि कई बार यह कहने के लिए विवश होना पड़ता है कि-

जिसकी कार सर के ऊपर से गुजर जाए उसे सरकार कहते हैं
विज्ञापन के बाद यदि कुछ खबर मिल जाय उसे अखबार कहते हैं

सचमुच यही दुखद स्थिति हमारे सामने है। अब तो खबरें भी प्रायोजित होने लगीं हैं। "पेड खबरों" की चर्चा भी आप हम सब देखते सुनते रहते हैं।

देश की हालत बुरी अगर है
संसद की भी कहाँ नजर है
सूर्खी में प्रयोजित घटना
खबरों की अब यही खबर है

और आम आदमी का सवाल लाजिम है कि -

खुली आँख से सपना देखो
खबर कौन जो अपना देखो
पहले तोप मुक़ाबिल था, अब
अखबारों का छपना देखो

एलेक्ट्रोनिक मीडिया पर तो बाजारवाद का और गहरा असर है। आखिर चौबीस घन्टे समाचार चलेंगे केसे? एक समाचार को बार बार दिखाना और समाचार चैनलों में गाना, तंत्र-मंत्र, ज्योतिष, फिल्मी नायक-नायिकायों की प्रेम कहानी को मशाला लगाकर परोसना और ना जाने क्या क्या दिखलाया जाता है।

चौबीस घंटे समाचार क्यों
वही सुनाते बार बार क्यों
इस पूँजी, व्यापार खेल में
सोच मीडिया है बीमार क्यों

समाचार में गाना सुन ले
नित पाखण्ड तराना सुन ले
ज्योतिष, तंत्र-मंत्र के संग में
भ्रषटाचार पुराना सुन ले

एलेक्ट्रोनिक चैनलों में यह दिखलाने की होड़ मची है कि सबसे पहले हमारा चैनल यहाँ पहुँचा और कुछ हृदय विदारक दृश्य को बार बार जब दिखलाते हैं तो अन्तर्मन से निकलता है कि -

सबसे पहले हम पहुँचे।
हो करके बेदम पहुँचे।
हर चैनल में होड़ मची है,
दिखलाने को गम पहुँचे।

मजे की बात है कि आज भी अस्सी प्रतिशत लोग गाँवों में रहते हैं लेकिन समाचार चैनल सिर्फ मुख्य मुख्य शहरों तक की खबरों को दिखलाने में मस्त है। तब चौथे खम्भे की वर्तमान रुग्ण-मानसिकता पर स्वतः ये पंक्तियाँ फूट पड़तीं हैं कि -

सब कहने का अधिकार है।
चौथा-खम्भा क्यूँ बीमार है।
गाँव में बेबस लोग तड़पते,
बस दिल्ली का समाचार है।

आज विश्व-बाजारवाद के कारण सचमुच यही स्थिति आ गयी है हमारे सामने। अधिक से अधिक धन कमाने की लालच में पत्रकारिता का यह पवित्र-कर्म बहुत प्रभावित हुआ है। आज अपराध से संबंधित जितनी भी खबरें आ रहीं हैं प्रायः सारी खबरें शाम के समय स्थानीय थाना से सम्पर्क करके बैठे बिठाये प्राप्त किए जा रहे हैं। घटना स्थल पर जाने का झमेला कोई मोल नहीं लेना चाहता। दुनिया की सारी सुख सुविधाएं कम समय में पाने की भूख, पत्रकार होने का झूठा अहं, देशहित और जनहित की भावना से अभावग्रस्त लोगों का इस पेशा में आना आदि अनेक कारण हैं जिससे पत्रकारिता के स्तर में गिरावट आयी है।

लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आज भी कई ऐसे लोग हैं इस मिशन में जो कुर्बानी देकर पत्रकारिता मिशन की पवित्रता को बनाये हुए हैं। कई उदाहरण हैं हमारे आपके सामने जब पत्रकारों ने अपने धर्म का बखूबी पालन किया है और आज भी कर रहे हैं। बात निराशा की नहीं बल्कि सचेत होने की जरूरत है इन आन्तरिक विद्रूपताओं से। अन्त में पत्रकार बहनों भाईयों से इन पंक्तियों के द्वारा अपील करना चाहता हूँ कि -

समाचार, व्यापार बने ना
कहीं झूठ आधार बने ना
सुमन सम्भालो मर्यादा को
नूतन दावेदार बने ना

चौथा - खम्भा दर्पण है।
प्रायः त्याग-समर्पण है।
भटके लोग सुधर जाएं तो,
सुमन-भाव का अर्पण है।



Tuesday, September 24, 2013

न्यायपालिका के पंख कुतरने की कोशिश

 "यह आरोप मेरी बढ़ती लोकप्रियता के कारण विरोधियों ने साजिश के तहत लगाया है" - "मुझे भारत की न्याय प्रणाली पर पूरा भरोसा है" - आदि आदि ---पिछले २-३ दशकों से आरोपी रहनुमाओं के ऐसे खोखले बयान सुन सुनकर हम सभी आजिज हो गए हैं। जब जब न्यायालय द्वारा देशहित में कोई महत्वपूर्ण फैसला दिया है जो तथाकथित "रहनुमाओं" के हित के विपरीत जाता है तो युद्ध-स्तर पर सरकार संसद द्वारा न्यायिक व्यवस्था के पंख कुतर दिए जाते हैं। हमारे आपके सामने शाहबानो प्रकरण से लेकर आज तक कई उदाहरण हैं। उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय से दागी रहनुमाओं को सीधा सीधी बचाने की दिशा में वर्तमान सरकार द्वारा २४-०९-२०१३ को लाया गया यह अध्यादेश यही साबित करता है कि इन "रहनुमाओं" को भारतीय न्याय प्रणाली पर कितना "भरोसा" है?

रामायण में विश्व कवि तुलसी दास जी ने एक प्रसंग में लिखा है कि - "को बड़ छोट कहत अपराधू" - आज यह कथन भारतीय लोकतंत्र के रक्षक "माननीयों" के ऊपर शत-प्रतिशत लागू हो रहा है। किसको अच्छा कहें? सब तो "मौसरे भाई" हैं। कुछ थोड़े से सचमुच अच्छे प्रतिनिधि हैं, उनकी सुनता ही कौन है?

अब तक के ज्ञात सारे शासन-तंत्र में लोकतंत्र आज पूरी दुनिया में एक अच्छी शासन व्यवस्था के रूप में स्वीकृत है। लेकिन भारत में इस पवित्र व्यवस्था से भी अब दर्गन्ध आने लगी है।  लोकपाल विधेयक - जनहित की दिशा में एक सार्थक पहल - पिछले ४५ साल से सदन में लम्बित है लेकिन करीब ४५ दिनों में ही आरोपी "जन प्रतिनिधियों" को बचाने के लिए अध्यादेश लाया गया और कम से कम ४५ बार सर्व सम्मति से "माननीयों" के वेतन-भत्ता में वृद्धि की गयी। कितना भद्दा मजाक है? अपनी एक गज़ल की कुछ पंक्तियों से बात समाप्त करूँ कि - 

कौन संत है कौन लुटेरा


कहने को साँसें चलतीं पर जीवन है लाचार यहाँ
सत्ता की सारी मनमानी क्यों करते स्वीकार यहाँ

वतनपरस्ती किसके दिल में खोज रहा हूँ सालों से
नीति-नियम और त्याग-समर्पण की बातें बेकार यहाँ

संविधान को अपने ढंग से परिभाषित करते सारे
छीन लिए जाते हैं यारो जीने का अधिकार यहाँ

दिखलायी देती खुदगर्जी रिश्तों में, अपनापन में
टूटा गाँव, समाज, देश भी टूट रहा परिवार यहाँ

आजादी की अमर कहानी नहीं पढ़ाते बच्चों को
वीर शहीदों के सपने भी शायद हो साकार यहाँ

भूखे की हालत पर लिखना बिना भूख वो क्या जाने
रोजी रोटी पहले यारो कर लेना फिर प्यार यहाँ

कौन संत है कौन लुटेरा यह पहचान बहुत मुश्किल
असली नकली सभी सुमन के लोग करे व्यापार यहाँ

Tuesday, September 10, 2013

कैसे हो हिंदी का उद्धार?

एक सवाल से अपनी बात शुरू करना चाहता हूँ। संवैधानिक रूप से आज भारत की "राष्ट्र-भाषा" क्या है? उत्तर है - कोई भाषा नहीं। आजादी के सड़सठ साल बाद भी हमारे राष्ट्र भारत की राष्ट्रभाषा तक संविधान में  स्पष्ट नहीं है। कितना दुखद है? हाँ खुशी की भी एक बात है कि संवैधानिक रूप से भारत में कोई राष्ट्रभाषा भले ही ना हो लेकिन लगभग सात दशक के सफर के दौरान हिन्दी सम्पर्क भाषा के रूप में पूरे राष्ट्र में विकसित हुई है। यहाँ तक कि दक्षिण के राज्यों में भी अब हिन्दी सहजता से बोली और समझी जाती है।

भाषा जो सम्पर्क की, हिन्दी उसमे मूल।
भाषा बनी न राष्ट्र की, यह दिल्ली की भूल।।

लेकिन फिर सवाल है कि जिस हिन्दी भाषा ने स्वतंत्रता संग्राम के दिनों पूरे देश के लोगों को जोड़ने का काम किया, देशवासियों को अंग्रेज और अंग्रेजियत से मुक्ति दिलाने में जिस भाषा की भूमिका अहम मानी जाती थी और जो व्यावहारिक रूप से आज भी सम्पूर्ण राष्ट्र को सम्पर्क-सूत्र के रूप में बाँधने का काम कर रही है, वही हिन्दी आज इतनी उपेक्षित क्यों? इतनी निरीह क्यों? यकीन नहीं आता तो देश के किसी भी हिस्से में किसी हिन्दी विद्यालय की स्थिति देख लें।

राज काज के काम हित, हिन्दी है स्वीकार।
लेकिन विद्यालय सभी, हिन्दी के बीमार।।

आजादी या सत्ता हस्तांतरण के समय सिर्फ इतना हुआ कि गोरे अंग्रेज के हाथ से सत्ता काले अंग्रेज के हाथ में आ गयी। अंग्रेज तो गए पर अंग्रेजियत बची रही और अंग्रेजी भाषा को उत्तरोत्तर छद्म और प्रत्यक्ष रूप से "राज्याश्रय" मिलने लगा। परिणाम स्वरूप हिन्दी धीरे धीरे उपेक्षित होती रही और अंग्रेजी लगातार पल्लवित - पुष्पित। हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं को जाननेवाले रोजगारों से वंचित होने लगे और अंग्रेजीदां के लिए रोजगार ही रोजगार। हिन्दी दिवस या अन्य अवसरों पर हिन्दी की महत्ता को हिन्दी में समझाने वाले रहनुमाओं की सन्तान भी अंग्रेजी में प्रवीण होने लगे और ऊँचे पदों पर लगातार काबिज होने लगे।

मंत्री की सन्तान सब, अक्सर पढ़े विदेश।
भारत में भाषण करे, हिन्दी में संदेश।।

सबसे मजेदार बात यह है कि व्याकरण के नियम के हिसाब से भी "व्यक्तिवाचक संज्ञा" के अनुवाद का चलन नहीं है। लेकिन इतने सालों के बाद भी भारत (जो व्यक्तिवाचक संज्ञा है) का अनुवाद "इन्डिया" धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। शायद दुनिया के किसी भी देश के नाम का अनुवाद नहीं होता है। खैर----

पानी और प्रशासन का बहाव हमेशा ऊपर से नीचे की ओर होता है। हिन्दी तबतक उपेक्षित रहेगी जबतक दिल्ली के शासकवर्ग हिन्दी को सही अर्थों में राज्याश्रय नहीं देंगे, रोजगार के अवसरों में इसकी महत्ता को नहीं स्वीकार करेंगे, हिन्दी विद्यालयों की स्थिति सहित शिक्षकों की बेहतरी का खयाल नहीं रखेंगे तबतक हिन्दी यूँ ही निरन्तर उपेक्षा का शिकार होते रहेगी और यह भी सम्भव है लोग हिन्दी पढ़ना लिखना भी भूल जाय। 

यह स्थिति आज भी देखी जा सकती है। आज आपको अपने आस पास ही कई बच्चे ऐसे मिलेंगे जो हिन्दी बोल तो लेते हैं किसी तरह पर हिन्दी पढ़ नहीं पाते। किसी भी घर में जाएँ तो माता-पिता, अभिभावक अपने बच्चों यह कहते मिलेंगे कि - बेटा जरा "अंकल" को वो "पोएम" सुना दो। माता पिता भी खुश होते हैं कि चलो बच्चों को हिन्दी नहीं आती तो क्या? अंग्रजी तो फर्राटेदार बोलता है ना?

यानि हिन्दी के प्रति सरकारी उपेक्षा के कारण अब अभिभावकगण की दृष्टि में भी हिन्दी उपेक्षित हो रही है। फिर कैसे होगा उद्धार हिन्दी का? यह सवाल आज ज्वलन्त है। हमें भी जागने की जरूरत है और सरकारी तंत्रों को अपनी एकता से जगाने की भी। हम हिन्दुस्तान में रहकर साल में एकबार "हिन्दी पखवारा" मनाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझने लगे। सभी सरकारी संस्थाओं में यह "पुणीत" कार्य साल में एकबार अवश्य होता है।

हमारे राष्ट्र की भाषा बने कब शान से हिन्दी?
हमारी भिन्नता में एकता की जान ये हिन्दी।
मगर सच है सभी बच्चे को अंग्रेजी पढ़ाते हैं,
तो कैसे बन सकेगी देश की पहचान ये हिन्दी।  

और चलते चलते एक बात और - हिन्दी पखवारे के एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि ने संदेश दिया कि - आजकल लोगों की बहुत "बैड हैबीट" हो गयी है कि हिन्दी बोलने में "इंगलिश वर्ड" का "यूज" करते हैं।