Wednesday, May 30, 2012

नपुंसक विरोध

केन्द्र सरकार का तुगलकी - फरमान एकाएक २३-०५-२०१२ को पेट्रोल की कीमत ७-५४ रुपये पैसे प्रति लीटर बढ़ा दी गयी। देश के हर पेट्रोल पम्पों पर अपनी अपनी गाड़ियों के साथ रात १२ बजे तक ग्राहकों की भारी भीड़ ताकि अपने अपने संसाधन और वाहन के हिसाब से वे अधिक से अधिक पेट्रोल भराकर बढ़ी हुई कीमत को कुछ दिन के लिेए "मात" दे सकें। वैसे भी दूरगामी परिणामों के बारे में सोचने की फुर्सत किसे है? उस भारी भीड़ में पेट्रोल पम्प वाले ने अपनी "आसन्न व्यावसायिक क्षतिपूर्ति" के लिए किसको कितना कम पेट्रोल दिया यह एक अलग प्रसंग है। मगर यह भीड़ "स्वतः-स्फूर्त" थी जिसमें कितनों को खाली हाथ भी लौटना पड़ा।

आज ३१-०५-२०१२ को तमाम विपक्षी दलों और संगठनों द्वारा पेट्रोल की मूल्य-वृद्धि के खिलाफ "भारत बन्द" का आयोजन किया गया है। उम्मीद है २३-०५-२०१२ की रात में मूल्य-वृद्धि से पहले भराये गए पेट्रोल अब तक
खत्म हो गए होंगे। क्या वही "स्वतः-स्फूर्त" जनता की भीड़ विरोध में आज सड़कों पर उतरेगी? कभी नहीं। सम्भव ही नहीं है क्योंकि राजनैतिक दलों और आम जनता के बीच मे सिर्फ "वोट" का व्यावसायिक सम्बन्ध ही तो रह गया है।

हाँ सड़कों पर उतरेगी वो प्रायोजित भीड़ जिनका स्वार्थ राजनैतिक दलों और संगठनों से जुड़ा हुआ है। फिर सड़कों पर होगा वही गुण्डई का नंगा नाच, सरकारी (जनता) सम्पत्ति का नुकसान और दिहाड़ी मजदूरों की मजदूरी छीनने का खेल जिसे हम वातानुकूलित कमरों में बैठकर टी० वी० में देखेंगे। शाम में तथाकथित बुद्धिजीवियों की टीम के साथ "प्राइम टाइम" में आकर न्यूज चैनल वाले अपने अपने ज्ञान का पिटारा खोलेंगे, चैनल का टी० आर० पी० बढ़ेगा। सबेरे देश के हर हिस्से में स्थानीय "प्रभावशाली लोगों" की प्रमुखता के साथ अखबारों में फोटो और उनके "कारनामे" का समाचार जो सम्बन्धित दल के आकाओं तक पहुँचे। शाम तक हम सब भूल जायेंगे और अगली सुबह से "फिर वही बात रे वही बात"

केन्द्र सरकार का कई राजनैतिक दलों द्वारा दिल्ली में दिलो जान से समर्थन के बावजूद वे इस भारत बन्द में शामिल होने का जोर शोर से विज्ञापन भी कर रहे हैं ताकि "आमलोगों" को पुनः बेवकूफ बनाने में वे सफल हो सकें। इस नपुंसक विरोध का क्या मतलब? आम जनता क्यों नहीं है राजनैतिक दलों के साथ? यह सवाल भी कम मौजूं नहीं है। देश के रहनुमाओं द्वारा छः दशकों से लगातार छली गयी जनता की स्थिति उस रेगिस्तानी शुतुरमुर्ग की तरह है जो तूफान आने से पहले अपने सर को बालू में यह सोचकर छुपा लेता है कि "अब मेरा तूफान कुछ नहीं बिगाड़ सकता"। खैर--- जय हो भरतवंशी सन्तान - मेरा भारत महान।

Thursday, April 19, 2012

सोचने को विवश करते कुछ प्रचलित शब्द

हमारे, आपके, प्रायः सबके जीवन में जाने अनजाने कुछ शब्दों के ऐसे प्रयोग होते रहते हैं जिनके शाब्दिक अर्थ कुछ और लेकिन उनके प्रचलित अर्थ कुछ और। मजे की बात है कि शब्दार्थ से अलग (कभी कभी विपरीत भी) अर्थ ही सर्व-स्वीकार्य भी हैं। इस प्रकार के कुछ शब्दों को को समेटते हुए प्रस्तुत है यह लघु आलेख।

मृतात्मा - अक्सर अखबारों में, समाचारों में, शोक सभाओं में इस शब्द का प्रयोग होता है। लोग प्रायः कहते हैं कि "मृतात्मा की शांति के लिए दो मिनट का मौन"। अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि "क्या आत्मा भी मरती है?" यदि हाँ तो फिर उन आर्ष-वचनों का क्या होगा जिसमें हजारों बार कहा गया है कि "आत्मा अमर है।" या फिर गीता के उस अमर श्लोक - "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि -----" का क्या होगा? फिर अगर आत्मा नहीं मरती तो इस "मृतात्मा" शब्द के प्रयोग का औचित्य क्या है?

आकस्मिक मृत्यु - ये शब्द भी धड़ल्ले से प्रयोग हो रहे हैं लेखन और वाचन में भी। इस संसार में किसी की भी जब स्वाभाविक मृत्यु होती है तो आकस्मिक या अचानक ही होती है। किसी की मृत्यु क्या सूचना देकर आती है? क्या इस तरह का कोई उदाहरण है? शायद नहीं। मेरे समझ से ऐसा हो भी नहीं सकता। मृत्यु हमेशा आकस्मिकता की ओर ही ईशारा करती है। फिर "आकस्मिक मृत्यु" शब्द के लगातार प्रयोग से उलझन पैदा होना स्वाभाविक है।

दोस्ताना संघर्ष - राजनीति की दुनिया में, जब से "गठबन्धन संस्कृति" का आविर्भाव हुआ है, इस शब्द का प्रयोग खूब प्रचलन में है जबकि इसमे प्रयुक्त दोनों शब्दों के अलग अलग अर्थ एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। जब दोस्ती है तो संघर्ष कैसा? या फिर जब आपस में संघर्ष है तो दोस्ती कैसी? शायद आम जनता की आँखों पर गठबन्धन धर्म की आड़ में शब्दों के माध्यम से पट्टी बाँधने की कोशिश में इसका जन्म हुआ है।

दर्पण झूठ न बोले - ये कहावत न जाने कब से हमारे जीवन का हिस्सा बन गया है और आम जीवन में खूब प्रचलित भी है। हम सभी जानते हैं कि "दर्पण बोल नहीं सकता" चाहे वो झूठ हो या सच। दर्पण सिर्फ हमारे प्रतिबिम्बों को दिखला सकता है। यदि और एक परत नीचे जाकर सोचें तो दर्पण मे दिखने वाला प्रतिबिम्ब भी पूरी तरह सच नहीं है बल्कि विपरीत है। बायाँ हाथ दर्पण में दाहिना दिखलाई देता है। मगर "दर्पण झूठ न बोले" प्रयोग हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे।

एक दिन दर्पण के सामने खड़ा इसी सोच में डूबा था कि तत्क्षण कुछ विचार आये जो गज़ल की शक्ल में आपके सामने है -

छटपटाता आईना

सच यही कि हर किसी को सच दिखाता आईना
ये भी सच कि सच किसी को कह न पाता आईना

रू-ब-रू हो आईने से बात पूछे गर कोई
कौन सुन पाता इसे बस बुदबुदाता आईना

जाने अनजाने बुराई आ ही जाती सोच में
आँख तब मिलते तो सचमुच मुँह चिढ़ाता आईना

कौन ऐसा आजकल जो अपने भीतर झाँक ले
आईना कमजोर हो तो छटपटाता आईना

आईना बनकर सुमन तू आईने को देख ले
सच अगर न कह सका तो टूट जाता आईना

यूँ तो इस तरह के और कई शब्द हैं, खोजे जा सकते हैं लेकिन आज इतना ही।

Sunday, April 1, 2012

मंहगाई के रंग

अपने अपने ढंग से लोग आध्यात्मिक-वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर कहते रहते हैं कि जीवन में अलग अलग रंगों का अलग अलग प्रभाव पड़ता है। लगता है यह किंचित सच भी है। तभी तो "उजला कपड़ा" पहने लोगों के "काले धन" को निकलवाने के लिए "भगवाधारियों" के साथ साथ पूरे देश में लोग गुस्से से "लाल पीले" हो रहे हैं और लगातार बढ़ती मँहगाईयों के कारण आमलोगों के चेहरे पर से "खुशियों की हरियाली" गायब हो रही है।