Wednesday, June 8, 2011

एक कोशिश

मैं सोचता हूँ कि मैं सोच सकता हूँ और यह भी सोचता हूँ कि आखिर क्यों सोचता हूँ? सिर्फ सोचने से तो कोई काम अंजाम तक नहीं पहुंचेगा, कुछ कुछ करना ही पड़ता है। साथ ही यह भी सच है कि बिना सोचे कोई काम ढ़ंग से किया भी तो नहीं जा सकता।

फिर सोच में पड़ जाता हूँ कि क्या किया जाय? बिना कर्म के सोचने का कोई अर्थ नहीं और बिना सोचे, किये गए कर्म भी अर्थहीन हो जाते हैं।

आखिर इस अन्तर्द्वन्द का निदान क्या है? यह भी सोचने को लगातार विवश करता है।

फिर सोचता हूँ कि सोच हमेशा अग्रगामी है और कर्म सतत अनुगामी। उपाय तब तो एक ही दिख रहा है कि स्वयं के सोच और कर्म के बीच की दूरी को अपने यथार्थ जीवन में निरन्तर कम करने की कोशिश हो ताकि जीवन के अंतर्द्वंद कम से कमतर हो सके और अनावश्यक सोच की काली छाया से मुक्त होकर यह छोटी सी जिन्दगी सही राह पर चल सके।

और पुनः सोचता हूँ कि काश दिल्ली में बैठे हमारे रहनुमा भी अपनी कथनी और करनी के बीच की दूरियों को कम करने की दिशा में सोच पाते तो भारत की तस्वीर आज कुछ और होती।

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